संगठनों की सोच बनाम संवैधानिक अधिकार: अब समय है न्याय की लड़ाई का": हिमांशु राणा

 संगठनों की सोच बनाम संवैधानिक अधिकार: अब समय है न्याय की लड़ाई का": हिमांशु राणा

जब मैं मर्जर मामले में सड़कों पर दौड़ रहा था, तब यही संगठन मज़ाक बना रहे थे। कहते थे – “सिर्फ सरकार जो चाहती है वही होगा।” 


लेकिन मैं नियमों, कानूनों और अधिकारों पर डटा रहा, जबकि ये लोग सरकार की भक्ति में डूबे रहे | 



अब जब सुप्रीम कोर्ट से आदेश आया है — जिसमें हिमांशु राणा का नाम तक नहीं है, यहाँ तक कि उत्तर प्रदेश सरकार का जिक्र भी नहीं — तो वही संगठन अपनी असफलता का ठीकरा मेरे सिर फोड़ रहे | 



ये संगठन, जो वर्षों से सत्ता की चाटुकारिता में लगा रहा, अब अपने किए की जवाबदेही से बचना चाहता है।



मेरी कोर्ट में दो ही मांगें हैं:

 1. शीघ्र नियम बदलकर पदोन्नति कराइए।

 2. समायोजन कर पदों को खत्म करने का दुष्कर्म सरकार ने किया है – उसे वापस कराइए।



इन सब बातों को करने के लिए न तो इनके पास हिम्मत है, न योजना। अब फ़ोटोबाजी का दौर चलेगा constructive कुछ नहीं करेंगे | 



संविधान ने मुझे अधिकार दिया है — अनुच्छेद 226 और अनुच्छेद 32 में — कि अपने और अपने साथियों के हक के लिए मैं कोर्ट जाऊँ।

क्योंकि "स्वार्थ ही बेसिक है और बेसिक ही स्वार्थ है" | 



जिसे अपने अधिकार की चिंता नहीं, वह दूसरों की सेवा की बात करे – यह आत्मप्रवंचना है।



अब समय है कि हम भ्रम से बाहर आएँ, अपने अधिकारों के लिए खड़े हों, और किसी की चाटुकारिता नहीं, बल्कि कानून और संविधान की ताकत से न्याय पाएँ।


#राणा


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